Jaivic Kheti Kya Hai | जैविक खेती क्या है | What is Organic Farming ?

Written by Rajesh Sharma

📅 March 14, 2022

Jaivic Kheti Kya Hai

Jaivik Kheti Kya Hai यह इस लेख में बडे सरल तरीके से समझाया गया है तथा उसके क्या क्या फायदे हैं तथा रासायनिक व कीटनाशको के क्या क्या नुकसान है ।

Jaivik Kheti Kya Hai | जैविक खेती क्या है | What is Organic Farming ?

Jaivik Kheti Kya Hai यह एक ऐसी पध्दति है, जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों तथा खरपतवारनाशियों के स्थान पर जीवांश खाद पोषक तत्वों (गोबर की खाद कम्पोस्ट, हरी खाद, जीवणु कल्चर, जैविक खाद आदि) जैव नाशियों (बायो-पैस्टीसाईड) व बायो एजैन्ट जैसे क्राईसोपा आदि का उपयोग किया जाता है, जिससे न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है, बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता तथा कृषि लागत घटने व उत्पाद की गुणवत्ता बढने से कृषक को अधिक लाभ भी मिलता है ।

प्राचीन काल में मानव स्वास्थ्य के अनुकुल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान का चक्र (Ecological system) निरन्तर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था ।

भारत वर्ष में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गौ पालन किया जाता था, जिसके प्रमाण हमारे ग्रंथों में प्रभु कृष्ण और बलराम हैं जिन्हें हम गोपाल एवं हलधर के नाम से संबोधित करते हैं अर्थात कृषि एवं गोपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, जोकि प्राणी मात्र व वातावरण के लिए अत्यन्त उपयोगी था । परन्तु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो गया तथा कृषि में तरह-तरह की रसायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है जिसके फलस्वरूप जैविक और अजैविक पदार्थो के चक्र का संतुलन बिगडता जा रहा है, और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है ।

अब हम रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर, जैविक खादों एवं दवाईयों का उपयोग कर, अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुध्द रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी स्वस्थ रहेंगे ।

भारतमें नौ हजार वर्ष ईसापूर्व के भी पहले से कृषि की जा रही है । यहाँ बहुत पहले से ही वृक्ष लगाना, फसलें उगाना एवं पशुओं को पालतू बनाना आरंभ हो गया था ।

जैविक खेती- परिचय

Jaivik Kheti Kya Hai यह भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना और किस प्रकार हुआ था इसकी संप्रति कोई जानकारी नहीं है । किंतु सिंधुनदी के काँठ के पुरावशेषों के उत्खनन के इस बात के प्रचुर प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व कृषि अत्युन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे, ऐसा अनुमान पुरातत्वविद् मुहैंजोदडो में मिले बडे बडे कोठरों के आधार पर करते हैं ।

वहाँ से उत्खनन में मिले गेहूँ और जौ के नमूनों से उस प्रदेश में उन दिनों इनके बोए जाने का प्रमाण मिलता है । वहाँ से मिले गेहुँ के दाने ट्रिटिकम कंपैक्टम ((Triticum Compactum)) अथवा ट्रिटिकम स्फीरौकोकम (Triticum sphaerococcum) जाति के हैं । इन दोनो ही जाति के गेहूँ की खेती आज भी पंजाब में होती है । यहाँ से मिला जौ हाडियम बलगेयर (Hordeum Vulgare) जाति का है । उसी जाति के जौ मिश्र के पिरामिडो में भी मिलते है । कपास जिसके लिए सिंध की आज भी ख्याति है उन दिनों भी प्रचुर मात्रा में पैदा होता था ।

भारत में ऋग्वैदिक काल से ही कृषि पारिवारिक उद्योग रहा है और बहुत कुछ आज भी उसका रूप है। लोगों को कृषि संबंधी जो अनुभव होते रहें हैं उन्हें वे अपने बच्चों को बताते रहे हैं और उनके अनुभव लोगों में प्रचलित होते रहे । उन अनुभवों ने कालांतर में लोकोक्तियों और कहावतों का रूप धारण कर लिया जो विविध भाषाभाषियों के बीच किसी न किसी कृषि पंडित के नाम प्रचलित है और किसानों जिह्वा पर बने हुए हैं । हिंदी भाषा भाषियों के बीच ये घाघ और भड्डरी के नाम से प्रसिद्ध है । उनके ये अनुभव आघुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं ।

कृषि को मानव कल्याण का साधन माना गया है। यजुर्वेद में राजा का मुख्य कर्त्तव्य कृषि की उन्नति, जन कल्याण और धन-धान्य की वृद्धि करे माना गया है। अथर्ववेद के अनुसार हमारा राजा कृषि को विशेष रीति से बढ़ावे अर्थात् जो पदार्थ मनुष्य के आरोग्य के लिए लाभदायक होते हैं। उन पदार्थों की खेती बढ़ाने का उत्साह राजा अपनी प्रजा में उत्पन्न करें। धान्यादि पदार्थ ही मनुष्य का जीवन है इसलिए जीवन को बढ़ाने वाले पदार्थ ही फल-फूल, कंद-मूल, धान्य आदि ही बढ़ाने चाहिए।

मनुष्यों ने  अन्न युक्त शक्तियों से कहा और पुकारा कि आप हमारे पास आओ। मनुष्यों को धान्यादि को जड़ दृष्टि से नहीं देखना चाहिए परन्तु उसके अन्दर परमात्मा की जीवनशक्ति है उसको देखना चाहिए और उसी दृष्टि से धान्यादि उत्पन्न करने चाहिए।

उसी दृष्टि से धान्यादि का सेवन भी करना चाहिए। यदि यह दृष्टि मनुष्यों में जीवित और जागृत हो जायेगी तब वह तंमाखू, भांग, अफीम, गांजा आदि क्यों उत्पन्न करेगा क्योंकि जो इन पदार्थों का सेवन करता है वह अपनी सन्तान के साथ क्षीण और रोगी होता है और अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। वेदों  में कृषि के लिए आवश्यक सभी तत्वों/चीजों और उत्पादों का वर्णन किया गया है जैसे कि भूमि, जल, बीज, खाद, वायु, धूप, कीटनाशक, बैल, औजार,  अन्न, वृक्ष, औषधियां और गौपालन इत्यादि ।

कृषि गीता में वैदिक खेती को गौ आधारित बताया गया है। हर घर में गोपालन एवं पंचगव्य आधारित कृषि का वर्णन है। गोबर-गोमूत्र युक्त खाद, पंचगव्यों का घर-घर में उत्पादन किया जाता था। ऋषि मृदा की प्रकृति, क्षमता, संरचना को बेहतर समझते थे ।

ऋग्वेद व अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि राजा वेन के पुत्र राजा पृथी कृषि विद्या के प्रथम आविष्कारक थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम कृषि विद्या के द्वारा विविध प्रकार के अन्नों के उत्पादन का रहस्य ज्ञात किया। उन्होंने कृषि की और अन्न उत्पन्न किए। कृषि और अन्न पर सभी मनुष्यों का जीवन निर्भर है। इसलिए कृषिविद्यावित् की शरण में सभी लोग जाते थे।

भारत के निवासी आर्य कृषिकार्य से पूर्णतया परिचित थे, यह वैदिक साहित्य से स्पष्ट परिलक्षित होता है । ऋग्वेद और अथर्ववेद में कृषि संबंधी अनेक ऋचाएँ है जिनमे कृषि संबंधी उपकरणों का उल्लेख तथा कृषि विधा का परिचय है । ऋग्वेद में क्षेत्रपति, सीता और शुनासीर को लक्ष्यकर रची गई एक ऋचा (4।57।–8) है जिससे वैदिक आर्यो र्के कृषि विषयक ज्ञान का बोध होता है ।

शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लाङ्गलम् । शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय ।।

शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय: । तेने मामुप सिंचतं ।।

अर्वाची सभुगे भव सीते वंदामहे त्वा । यथा न: सुभगाससि यथा न: सुफलाससि ।।

इन्द्र: सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छत । सान: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ।।

शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिं । शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहै: ।।

शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि: । शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम् ।।

एक अन्य ऋचासे प्रकट होता है कि उस समय जौ हल से जोताई करके उपजाया जाता ।

एवं वृकेणश्विना वपन्तेषं, दुहंता मनुषाय दस्त्रा । अभिदस्युं वकुरेणा धमन्तोरू, ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ।।

अथर्वेदसे ज्ञात होता है कि जौ, धान, दाल और तिल तत्कालीन मुख्य शस्य थे ।।

व्राहीमतं यव मत्त मथो, माषमथों विलम् । एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय, दन्तौ माहिसिष्टं पितरं मातरंच ।।

अथर्ववेद में खाद का भी संकेत मिलता है जिससे प्रकट है कि अधिक अन्न पैदा करने के लिए लोग खाद का भी उपयोग करते ।

संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्, गोष्ठं करिषिणी । बिभ्रंती सोभ्यं, मध्वनमीवा उपेतन ।।

गृह्य एवं श्रौत सूत्रों में कृषि से संबंधित धार्मिक कृत्यों का विस्तार के साथ उल्लेख हुआ है । उसमें वर्षा के निमित्त विधिविधान की तो चर्चा है ही, इस बात का भी उल्लेख है कि चूहों और पक्षियों से खेत में लगे अन्न की रक्षा कैसे की जाए । पाणिनि की अष्टाध्यायी में कृषि संबंधी अनेक शब्दों की चर्चा है जिससे तत्कालीन कृषि व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है ।

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