भारत में Vyavastha Parivartan की जरुरत है, जिससे भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर स्थापित हो सके और स्वस्थ सुखी व सम्मानित जीवन जी सके ।

Vyavastha Parivartan- चलें मूल जड़ों की ओर

– राजेश शर्मा

 हम कहाँ थे ? कहाँ आ गये !

संबिधान लागू होने के बाद से आज तक की स्थिति :

अपनी 500 वर्षों की विकास यात्रा में यूरोपीय देशों ने जो मॉडल खड़े किए, उसका घातक परिणाम आज न केवल मनुष्यों को, बल्कि संपूर्ण प्रकृति को भी झेलना पड़ रहा है । हथियारवाद, उपनिवेशवाद, उपभोक्तावाद, भौतिकवाद के रास्ते चलते हुए पश्चिमी सभ्यता ने बदली हुई परिस्थिति में अपनी सर्वोच्चता को बनाये रखने के लिए बाजारवाद का नारा दिया । पूँजी को ब्रह्म, मुनाफा को जीवनमूल्य और उन्मुक्त उपभोग को मोक्ष बताया गया । इसके चलते मानव अमानवीय होता गया । लाभोन्माद, भोगोन्माद को मानवजीवन का मूल मान लिया गया । पारम्परिक मानवीय मूल्य नष्ट होते गए और संवेदनशीलता कुंद होती गयी ।

7 वीं शताब्दी के बाद भारत पर मुसलमानों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों एवं अग्रेजों के लगातार आक्रमण हुए व गुलाम बनाया जाता रहा। 14 अगस्त 1947 को नेहरू तथा अंग्रेज सरकार के प्रतिनिधि माउंटवेटन से सत्ता के बीच हस्तांतरण की संधि (ट्रंसफर ऑफ पॉवर एग्रीमेंट) नाम से एक समझौता किया गया। इसी समझौता के तहत 1947 से आज तक भारत में अंग्रेजी तंत्र चल रहा है ।

आज की शिक्षा-व्यवस्था जिसमें भारतीय संस्कार व आध्यात्मिक मूल्यों को पूरी तरह से निकाल दिया गया है। घातक अंग्रेजी चिकित्सा का परवान इतना चढा दिया है कि आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा आदि हाशिये पर आ गये हैें, अत्याचार व गुलाम बनाये रखने के लिए अंग्रेजों ने जो कानून व शासन व्यवस्था बनाई थी वह आज भी लागू है । आज की चल रही अर्थव्यवस्था जिसमें पूँजी का विकेन्द्रीकरण न होने से गाँव गरीब हो रहे हैं। विकास के मूल तत्व केवल हवा, जल, जमीन, भूसम्पदा ही नहीं बल्कि पूरी प्रकृति को दाव पर लगा दिया गया है । अनजाने में ईमानदार आदमी भी इस व्यवस्था के कारण भारत के शोषण व भ्रष्टाचार में सहयोगी बन रहा है ।

भारत में वैदिक परम्परा अनादिकाल से चल रही है। आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास के हर क्षेत्र मेें भारत पूरे विश्व में विश्वगुरु के पद पर आसीन रहा है। हर इंसान के साथ-साथ समग्र प्रकृति के साथ भी हमारा न्यायपूर्ण दृष्टिकोण रहा है। समाज, सत्ता, व्यवस्था व सम्पत्ति में न्यायपूर्ण स्वामित्व व वितरण रहा है । पुनः यहाँ पहुचने के लिए Vyavastha Parivartan की जरुरत है ।

हमें भारतीय जीवन दर्शन, जीवन लक्ष्य, जीवन मूल्य और जीवन आदर्श के अनुरूप जीवनशैली अपनानी होगी । इसके अनुकूल Vyavastha Parivartan करके राजनीति, अर्थनीति, कानून आदि व्यवस्थाओं को परिभाषित व साकार करने की जरूरत है । पिछले लगभग 100 वर्षों से केन्द्रीयकरण, एकरूपीकरण, बाजारीकरण व अंधाधुंध वैश्वीकरण को ही सभी समस्याओं का रामबाण इलाज माना जा रहा है । इस अंधी मानसिकता से हटकर भारतीय भूमंडल के अनुसार विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण और बाजार मुक्ति की दिशा में आगे कदम बढ़ाने से ही आज की अपसंस्कृति की सुनामी से बचा जा सकेगा Vyavastha Parivartan करके ।
आध्यात्मिकता के बिना भौतिक विकास अंधा व विनाशकारी है।

राजनीतिक व्यवस्थाः
भारत के अपने संविधान निर्माण में प्राचीन भारतीय बौद्धिक संपदा का न तो अध्ययन किया और न ही उपयोग । सीधे-सीधे इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस आदि देशों के संविधान को आधार बनाकर मामूली फेर-बदल के साथ, स्वतन्त्र भारत के संविधान के रुप में स्वीकार कर लिया गया है । हमारा संविधान स्वदेशी चिन्तन पर आधारित नहीं है, यह हम पर साजिश के तहत आरोपित है । संसद में इंग्लैंड की तर्ज पर लोकसभा एवं राज्यसभा दो सदन बनाये गये । प्रतिनिधियों को वोट के माध्यम से चुनने की बहुदलीय चुनाव प्रणाली आरोपित की गयी । वर्तमान व्यवस्था के चार प्रमुख स्तम्भ विधायिका (संसद), कार्यपालिका न्यायपालिका एवं सूचना तंत्र स्थापित हैं। आजादी के नाम पर हम अंग्रजोेेंके कानूनों की गुलामी में जी रहे हैं आज उसमें Vyavastha Parivartan करने की जरुरत है ।

कानून व्यवस्थाः
अंग्रजों ने हमें लूटने, शोषण करने व सदियों तक हमको गुलाम बनाने के लिए जो 34,735 कानून बनाये थे, आज वही कानून चल रहे हैं । आज हमारी न्याय-व्यवस्था अपराधियों में मात्र 5% लोगों को ही दण्ड दे पाती है । भ्रष्टाचार से देश का सौ लाख करोड़ रुपये धन स्विस बैंक व अन्य विदेशी बैंकों में जमा हो जाता है ।3% बहन-बेटियों की इज्जत से खेलनी की कोशिश की जाती है । प्रति घण्टा लगभग 2 बेटियों के साथ बलात्कार होता है । हमारी न्याय-व्यवस्था क्या इन अपराधियोंं को दण्ड दे पा रही है ? नही तो ऐसी जगह Vyavastha Parivartan करने की जरुरत है ।

अर्थव्यवस्था:
देश में लगभग 200 लाख करोड़ रुपये की अकूत धन सम्पदा है, परन्तु गलत व्यवस्था के कारण इस पर 1% लोगों का कब्जा हो गया है । आज 10% पूजी 90% लोगों के लिए और 90% पूजी 10% लोगों के लिए प्रयोग की जा रही है । इसी आर्थिक अन्याय के कारण शोषण, लूट आदि चालू हैं । असमान वितरण, भ्रष्टाचार व भारत में लागू विदेशी अर्थनीतियों के परिवर्तन की नितान्त आवश्यकता है । विदेशी कम्पनियों के हाथों में देश का बाजार सौंपने से लूट, शोषण चालू है और देश का पैसा विदेश जा रहा है। विदेशी कम्पनियों से होनेवाली आर्थिक, चारित्रिक, शारीरिक, सामाजिक व राष्ट्रीय हानियों के बारे में हम सभी देशवासियों को सोचना होगा तथा ऐसी जगह Vyavastha Parivartan करने की जरुरत है ।

शिक्षा व्यवस्था:
आजादी के 68 वर्ष बाद भी सरकार के पास अपना असली इतिहास व ऋषि परम्परा का ज्ञान पाने की उत्तम व्यवस्था नहीं है । हमें अपने देश की भाषाओं में उच्च तकनीकी आदि की शिक्षा पाने की व्यवस्था नहीं है । यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी नाकामयाबी है, जिसमें तुरंत Vyavastha Parivartan करना पडेगा ।

चिकित्सा व्यवस्थाः
65% देश के लोग बीमार होने के बाद उपचार नहीं करा सकते और जो 35% लोग इलाज भी करवाते हैैं उसमें प्रतिवर्ष सात लाख करोड़ रुपये से ज्यादा धन का दोहन मात्र रोगों का नियन्त्रित करने में हो जाता है और इनमें भी लगभग 50% लोग अपनी जमीन-घर बेचकर या गिरवी रखकर इलाज करवाते हैं । यह हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की नाकामयाबी नहीं है तो और क्या है यहाँ Vyavastha Parivartan करने की जरुरत है ? 

कृषि व्यवस्था:
जहरीले व महंगे खाद व कीटनाशकों ने देश के किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया है । किसान का बीज, कीटनाशक व इन जहरीली खादों को खरीदने में ही अपनी कुल फसल की आय का लगभग 80% खर्च हो जाता है । प्रतिवर्ष रासायनिक खाद व जहरीले कीटनाशकों के नाम पर लगभग 5 लाख लोगों की मौत व दूषित आहारजनित रोगों को नियन्त्रित करने में देश के लगभग 7 लाख करोड़ रुपये बर्बाद हो जाते हैं । इस जहरीली खाद से उत्पन्न जहरीला अन्न खाकर देश के 125 करोड़ लोगों की जिंदगी में खतरनाक रोग पैदा हो गये हैं । भारत में आज की चल रही अंगे्रजी व्यवस्था के कारण लगभग 58 किसान हर रोज मर रहे हैं,  Vyavastha Parivartan करके इस मौत को रोका जा सकता है ।

 

विकास के सही मायने

– के.एन. गोविंदाचार्य

 भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है।

जब हम विकास की बात करते हैं तो प्राय: हम विकास की अमेरिकी अवधारणा को ही दोहराने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। भारत ही क्या, दुनिया के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समाजों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस मूल तत्व से प्रभावित होते हैं, वह है वहां की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवनादर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है। उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही दुनिया में उनकी भूमिका भी तय होती जाती है।

भारत भी ऐसा एक देश है जहां भूगोल का असर पड़ा। उसके कारण यहां विकेन्द्रीकरण, विविधता, अभौतिक सुख का महत्व, मनुष्य प्रकृति का पारस्परिक संबंध जैसी बातों को विशेष महत्व दिया गया। उसी आधार पर यहां सुख की समझ बनी। विश्व दृष्टि, जीवन दृष्टि बनी। दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान करने की इच्छा और सामर्थ्य विकसित हुई। यहां समृध्दि और संस्कृति के संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक माना गया। सुख के भौतिक-अभौतिक पहलुओं की समझ बनी। तदनुसार समाज संचालन की विधाएं विकसित हुईं। धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता की संरचनाएं एवं उनके पारस्परिक संबंध, स्वायत्तता आदि की व्यवस्था बनी । समय-समय पर परिमार्जन व Vyavastha Parivartan की व्यवस्था भी बनती गई । देसी समझ के साथ समस्याओं के समाधान और हर प्रकार की सत्ता के विकेन्द्रीकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया । विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण की अवधारणा को समाज व्यवस्था की निरंतरता एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक समझा गया। इन सब बातों को भारत की तासीर कहा जा सकता है।

विगत 200 वर्षों में इस तासीर को समय-समय पर मिटाने और बदलने की कोशिश होती रही। अभी यह कोशिश अंधाधुंध वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के हमले के रूप में हमारे सामने है। विचार, व्यवस्था, व्यवहार तीनों स्तरों पर इसका प्रभाव है। यह चुनौती एक दानवी चुनौती है क्योंकि इसमें न तो मनुष्य की, न तो उसके सुख की और न ही समाज और प्रकृति की कोई परवाह है। इसकी सोच आक्रामक, पाशविक, प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है। इसके लक्षण हैं केन्द्रीकरण, वैश्वीकरण, एकरूपीकरण एवं बाजारीकरण। यह अर्थसत्ता को सर्वोपरि बनाकर राजसत्ता का उपयोग करती है और इस प्रकार समाजसत्ता तथा धर्मसत्ता को नष्ट करके आसुरी संपदा, आसुरी साम्राज्य बनाने के लिए प्रयासरत है। हमारे ऊपर जो आसुरी हमला हो रहा है, उसमें मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को हवा देकर उसके जीवन के शेष अभौतिक पहलुओं को नकारने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है। इसी के अनुसार सुख एवं विकास आदि को परिभाषित किया जाता है और सभी माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे जन-जन के मन में बिठाने की कोशिश की जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास की यह भ्रामक, एकांगी एवं प्रदूषित संकल्पना है।

विकास का मतलब

भारत में विकास का मतलब है शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा का संतुलित सुख। आंतरिक एवं बाहरी अमीरी का संतुलन रहे। तदनुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था हो। तदनुसार शिक्षा संस्कार भी हो। समाज में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहे, वही सही विकास होगा। विकास की अवधारणा समाज से जुड़ी हुई है। हम समाज कैसा चाहते हैं? इसी से तय होगा कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास मानवकेन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे। वही तकनीक सही मानी जाएगी जो आर्थिक पक्ष के साथ पारिस्थितिकी एवं नैतिक पक्ष का भी ध्यान रख सके।

मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग दूसरों को भी इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग उनके साथ है। इसका असर यह हुआ कि बहुत सारे लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग माल्स की बढ़ती संख्या को ही विकास मान बैठे हैं। परन्तु हकीकत यह नहीं है। जिसे विकास बताया जा रहा है वह वस्तुत: विकास नहीं है। अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती? क्या यहां के किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते? एक बात तो साफ है कि विकास को लेकर समाज में भयानक भ्रम फैलाया गया है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है।
भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। वर्तमान संप्रग सरकार की मानें तो आज भी देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। आज जहां एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं वहां इन लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है। यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में बढ़ती हुई देखी जा सकती है।

भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक यहां के किसान सुखी और समृध्द नहीं हैं। आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में देश की किसानी को पटरी पर लाने के लिए सरकारी तौर पर कई तरह के प्रयास हुए। लेकिन यहां भी किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि एक बार अनाज का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। जब से देश में तथाकथित ङ्कआर्थिक उदारवादङ्ख की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। हम अगर गौर करें तो हमारे ध्यान में आएगा कि 1991 के बाद किसानों की आत्महत्या काफी तेजी से बढ़ी है। अगर हम सरकार के बजट पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। अभी देश के किसानों और किसानी की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए देश का अदूरदर्शी नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर हम भारत का विकास नहीं कर सकते।

भारत के विकास की दिशा में सोचने पर मेरे ध्यान में आता है कि यहां ऐसी नीतियों को अपनाया जाना चाहिए, जिनसे परिवार की इकाई मजबूत बने। दरअसल, भारत की संरचना ही ऐसी है कि हम यहां एक-दूसरे के साथ एक खास तरह की डोर में बंधे बगैर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। हमारे सामाजिक संबंधों को तय करने में भी हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। हम सब अपने-अपने परिवार से ही संस्कार ग्रहण करते हैं। जब परिवार नामक इकाई मजबूत रहेगी तभी सही मायने में उसके सदस्यों के व्यक्तित्व का समग्र विकास हो पाएगा। आजकल देखने में आ रहा है कि परिवार नामक इकाई कमजोर होती जा रही है। अलगाव बढ़ता जा रहा है। लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। इसका असर समाज में साफ तौर पर दिखने लगा है। भय और असुरक्षा का माहौल बढ़ता जा रहा है। सोचने का दायरा सिमट कर रह गया है। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने की मानसिकता में आज लोग आ गए हैं। अगर हम वाकई इस दिशा में सुधार करना चाहते हैं तो हमारी नीतियां ऐसी हों जो परिवार नामक इकाई को मजबूत कर सकें।
देश के विकास के बारे में जब हम सोचें तो यह बात भी जेहन में रहनी चाहिए कि इसके लिए नारी की सुरक्षा, मर्यादा और सहभागिता सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है। भारत में नारी को मातृशक्ति का दर्जा दिया गया है। पर हकीकत में यह धारणा बस किताबों में ही रह गई है। व्यावहारिक तौर पर समाज में महिलाओं को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है, जिसकी हकदार वो हैं। हमें राष्ट्र के विकास की नीतियों के निर्धारण के वक्त इस बात का खयाल रखना होगा। आजादी के साठ साल गुजरने के बावजूद हम देख सकते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है। ऊंचे ओहदों की बात करें तो वहां तो महिलाएं और भी कम दिखती हैं। अगर हम समग्र विकास चाहते हैं तो आधी आबादी की सहभागिता को बढ़ाए बगैर ऐसा नहीं हो सकता।

देश के विकास के दौरान समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहना बेहद जरूरी है। आजकल देखा जा रहा है कि समृध्दि के लिए संस्कृति की उपेक्षा की जा रही है। समृध्दि भी जनसाधारण की नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों की। देश की नीतियां पूंजीपरस्त हो गई हैं और उसमें थैलीशाहों का हित सर्वोपरि हो गया है। ऐसे में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है। यदि हम समाज का समग्र विकास चाहते हैं तो समृध्दि और संस्कृति में संतुलन साधना बेहद जरूरी है। यह संतुलन साधे बगैर समाज में विकास की बात करना बेमानी होगा।

दरअसल, आज इस बात को भी समझने की जरूरत है कि हम आखिर समृध्दि किस कीमत पर चाहते हैं। क्या अपनी परंपराओं को मिटाकर लाई जा रही तथाकथित समृध्दि की हमें जरूरत है? और अगर हमारा जवाब नकारात्मक है तो आखिर हमारे लिए विकास का रास्ता क्या हो? आखिर कैसे हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए समृध्दि की दिशा में बढ़ें? कैसे हम अपनी संस्कृति को ही समृध्दि के लिए उपयोग में ला सकें? ये कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर बातचीत करने की आज जरूरत है।

स्वस्थ विकास तो मनुष्य के साथ-साथ जमीन, जल, जंगल और जानवर के विकास से भी जुड़ा है। इनकी उपेक्षा करके विकास की परिभाषा गढ़ेंगे तो वह टिकाऊ नहीं होगा। पर्यावरण की जिस समस्या से हम दो-चार हो रहे हैं वह और विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेगी। जरूरत इस बात की है कि विकास पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर किया जाए, न कि अकेले मानव मात्र को ध्यान में रखकर। पारिस्थितिकी में हर किसी की अपनी एक अलग और विशेष भूमिका है। अगर इस चक्र के किसी भी अंग को नुकसान हुआ तो पूरे चक्र का गड़बड़ाना तय है। विकास जब केवल मानव मात्र को ध्यान में रखकर करने की कोशिश की जाएगी तो यह सहज और स्वाभाविक है कि प्रकृति में जबर्दस्त असंतुलन कायम होगा और उसके दुष्परिणामों से मनुष्य बच नहीं पाएगा।

यदि विकास के पहिए को सही पटरी पर लाना है तो भूख और बेरोजगारी को मिटाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती। ऐसे लोग भी अपने देश में है जो रात में भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। उनकी इस स्थिति के लिए यदि हम विकास के मौजूदा माडल को दोषी ठहराएं तो गलत नहीं होगा। बेरोजगारी की मार से नौजवान बेहाल हैं। साफ तौर पर दिख रहा है कि सरकार के पास हर हाथ को रोजगार देने के लिए कारगर नीति का अभाव है। यह अभाव नया नहीं है। हमें विकास की ऐसी अवधारणा पर काम करना होगा जिसमें हर हाथ को काम मिल सके। इसके लिए हमें स्वरोजगार को बढ़ाने की दिशा में भी काम करना होगा। आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ते हुए नौजवानों में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि वे किसी का मुंह देखे बिना खुद अपने लिए रोजगार पैदा करते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकें। अभी विकास के जिस माडल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी रेखा तय की जाती है। इसका परिणाम सबके सामने है। मेरा मानना है कि सही मायने में अगर हम विकास चाहते हैं तो गरीबी रेखा के बजाए समृध्दि की रेखा तय की जाए और उसी के मुताबिक समयबध्द कार्यक्रम लागू किए जाएं।

भारत के संदर्भ में अगर हम विकास की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजनैतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। ग्राम सभा को सभी स्तरों के निर्णय में सहभागी बनाया जाए। राजनैतिक सत्ता में आम सहमति की अवधारणा को हकीकत में बदलने की जरूरत है। राजनीतिक दलों का रवैया प्रतिस्पर्धात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिए। इसके अलावा भारत के विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनैतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरूआत होनी चाहिए।

देश के समग्र विकास के लिए कर ढांचे को भी सुधारे जाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह आमदनी की बजाए खर्च पर कर लगाने की शुरुआत करे। आर्थिक क्षेत्र में अपने देश में बहुत अव्यवस्था है। इसे सुधारने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ अनार्जित आय को परिभाषित एवं नियंत्रित करना जरूरी है। न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासनिक ढांचे को विकेंद्रीकरण के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।

समग्र विकास के लिए यह भी जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों को स्वायत्तता दी जाए और उन्हें शक्ति संपन्न बनाकर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। ऐसा होने पर ही ये विकास की गति को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पाएंगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत के सामाजिक विकास में यहां के धर्मस्थलों की अहम भूमिका रही है। हमें उनकी सकारात्मक सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।

शिक्षा को व्यक्तित्व विकास केन्द्रित एवं जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए । शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे एक स्वतंत्र और सकारात्मक सोच विकसित हो । यहाँ Vyavastha Parivartan करके यह सम्भव किया जा सकता है ।

देशी चिकित्सा पध्दतियों को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें सक्षम बनाया जाए। अगर ऐसा किया जाएगा तो विकास को गति मिलनी तय है। हम सब जानते हैं कि बदलती जीवनशैली ने छोटे-बड़े रोगों का प्रकोप बढ़ा दिया है। आनन-फानन में हमें उपचार के लिए अंग्रेजी पध्दतियों का आश्रय लेना पड़ रहा है। इलाज कराते-कराते लोग कंगाल हो जाते हैं, लेकिन प्राय: उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पाता। देशी चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती और कई रोगों में ऐलोपैथी से अधिक कारगर है। हमें इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। निष्कर्ष यह है कि भारत में सकल उत्पाद एवं आर्थिक वृध्दि दर के स्थान पर विकास का एक नया ‘सुखमानक’ तैयार करने की जरूरत है। तभी समग्र विकास होगा और इसका फायदा समाज के प्रत्येक वर्ग को मिल पाएगा । अतः Vyavastha Parivartan की नितांत आवश्यकता है ।

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