व्रत-त्यौहार

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Written by Rajesh Sharma

📅 March 29, 2021

Bhartiya Vrat-Tyohar ki Mahima

Bhartiya Vrat-Tyohar ki Mahima क्या है इसे इस लेख में अच्छी तरह समझेगें शास्त्र व महापुरुष क्या कहते हैं इस वारें यह वर्णन यहाँ दिया गया है ।

Bhartiya Vrat-Tyohar ki Mahima | भारतीय व्रत-त्यौहार की महिमा

व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है । व्रतों में तीन बातों की प्रधानता है –

1. संयम-नियम का पालन, 2. देवाराधन तथा 3 लक्ष्य के प्रति जागरूकता ।

व्रतों से अन्तःकरण की शुद्धि के साथ-साथ बाह्य वातावरण में भी पवित्रता आती है तथा संकल्पशक्ति में दृढ़ता आती है । इनसे मानसिक शांति और ईश्वर की भक्ति भी प्राप्त होती है । भौतिक दृष्टि से स्वास्थ्य में भी लाभ होता है अर्थात् रोगों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है । कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित सभी प्रकार के पाप, उपपाप और महापापादि भी व्रतों से ही दूर होते हैं ।
इन व्रतों के कई भेद हैं –

1. कायिक – हिंसा आदि के त्याग को कायिक व्रत कहते हैं ।

2. वाचिक – कटुवाणी, पिशुनता (चुगली) तथा निन्दा का त्याग और सत्य, परिमित तथा हितयुक्त मधुर भाषण ‘वाचिकव्रत’ कहा जाता है ।

3. मानसिक – काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या तथा राग-द्वेष आदि से रहित रहना ‘मानसिक व्रत’ है ।

भारतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्वोत्सवों के आनन्द एवं उल्लास से परिपूर्ण हो । इन पर्वों में हमारी संस्कृति की विचारधारा के बीज छिपे हुए हैं । आज भी अनेक विघ्न-बाधाओं के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व की संपूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है । इसका एकमात्र श्रेय हमारी पर्व परम्परा को ही है । ये पर्व समय-समय पर संपूर्ण समाज को नयी चेतना प्रदान करते हैं तथा दैनिक जीवन की नीरसता को दूर करके जनजीवन में उल्लास भरते हैं और उच्चतर दायित्वों का निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं ।

‘पर्व’ का शाब्दिक अर्थ है – गाँठ अर्थात् सन्धिकाल । हिन्दूपर्व सदा सन्धिकाल में ही पड़ते हैं । पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी तथा संक्रांति आदि को शास्त्रों में पर्व कहा गया है ।

एकादशी व्रत करने से जीवन के संपूर्ण पाप विनष्ट हो जाते हैं । इस व्रत को सहस्रों यज्ञों के समान माना गया है । Bhartiya Vrat-Tyohar ki Mahima स्पस्ट समझ में आती है ।

ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी तथा विधवा स्त्रियाँ भी एकादशी व्रत के अधिकारी हैं ।
एकादशी व्रत का त्याग कर जो अन्न-सेवन करता है, उसकी निष्कृति नहीं होती । जो व्रती को भोजन के लिए कहता है, वह भी पाप का भागी होता है –
निष्कृतिर्धर्मशास्त्रोक्तो नैकादश्यान्नभोजिनः । (विष्णुधर्मोत्तरपुराण 12।16)

एकादशी को यदि कोई जननाशौच या मरणाशौच हो तब भी व्रत का परित्याग नहीं करना चाहिए । एकादशी को नैमित्तिक श्राद्ध भी उपस्थित हो तो उस दिन न कर परदिन द्वादशी को करना चाहिये –
एकादश्यां यदा राम श्राद्धं नैमित्तिकं भवेत् । तद्दिनं तु परित्यज्य द्वादश्यां व्रतमाचरेत् ।। (विष्णुरहस्य 12।27)

श्रीवेदव्यासजी अपने शिष्य जैमिनि के प्रति कहने लगे – ‘हे जैमिने ! जिस समय कोई पुण्यात्मा श्रीगंगातट पर स्नान के लिए प्रस्तुत होता है तो उसके स्वर्गस्थ पितर प्रफुल्लितहृदय होकर प्रशंसा करते हुए श्लोक पढ़ते हैं, जिसका अर्थ है – ‘अहो ! हमने पूर्व में कोई सद्गति-प्राप्त्यर्थ ऐसा पुण्य किया है कि हमारे वंश में ऐसा पुत्र हुआ जो श्रीगंगोदक से हमको तृप्तकर सुदुर्लभ परमधाम की प्राप्ति करायेगा । यह मेरा बेटा जो द्रव्य हमको संकल्पपूर्वक प्रदान करेगा वह सब अक्षय फलप्रद होगा ।’

नरकस्थ जो पितर सर्वदुःखसमन्वित हैं, वे श्री गंगातटाभिमुख अपने वंशज को देखकर यह आशा करते हैं कि हमने नरकक्लेशप्रद जो पाप किये थे, वे इस पुत्र के प्रसाद से क्षय हो जायेंगे । अहो, हम दुःसह नरकक्लेश से आज मुक्त होकर परमगति लाभ करेंगे । जो हतभाग्य श्रीगंगाजी की यात्रा के निमित्त प्रयाण करके भी मोहवश गृह को लौट आता है, उसके पितर निराश होकर अतिखिन्न मन से शाप देते हैं ।

श्रीगंगादितीर्थयात्रा में आमिष, मैथुन, दोला, अश्व, गज, छाता, जूता, असद्भाषण, पाखण्ड, जनसंसर्ग, द्विर्भोजन, कलह, परनिन्दा, लोभ, गर्व, मत्सर, अतिहास्य और शोक त्याज्य हैं । मार्गजनित श्रमोत्पन्न दुःख को हृदय में न लाये । गृह के शय्या-सुख का स्मरण न करे । भूमिशायी हुआ भी अपने को पर्यंकशायी-सा अनुभव करे । मार्ग में सर्वपापक्षयकारक श्रीगंगाजी के दिव्य नाम तथा माहात्म्य का कथन करता हुआ गमन करे । यदि चलता हुआ श्रान्त हो तो यह प्रार्थना करे – गंगे देवि जगन्मातर्देहि संदर्शनं मम ।

यदि मार्ग में यह भावना न होगी तो पूर्ण फल का भागी नहीं हो सकता । त्याज्यभावना यह है कि ‘हमारे पर्यंक, पत्नी, सुहृद्गण, गृह, धन-धान्यादि वस्तु की क्या दशा होगी ? हम गृहसुख त्यागकर किस संकट में पड़ गये, न जाने कितने दिनों में घर पहुँचेंगे – ऐसी चिन्ता को त्यागकर श्रीहरि के भक्तमण्डल के साथ यात्रा करता हुआ प्रसन्नचित्त से भावना करे –

गंगे गन्तुं मया तीरे यात्रेयं विहिता तव ।
निर्विघ्नां सिद्धिमाप्नोमि त्वत्प्रसादात्सरिद्वरे ।।
गमन न अति वेग से और न अति मन्द हो । श्रीगंगा आदि तीर्थयात्रा में अन्य कामासक्त न हो, नहीं तो यात्रा का आधा पुण्य नष्ट हो जाता है ।
इस प्रकार परम प्रेमनिमग्न हुआ जब श्रीगंगातट पर पहुँचे तब श्रीगंगाके दर्शन से तृप्त होकर सहर्ष यह भाव प्रकट करे –
अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् ।
साक्षाद् ब्रह्मस्वरूपां त्वामपश्यमिति चक्षुषा ।।
देवि त्वद्दर्शनादेव महापातकिनो मम ।
विनष्टमभवत्पापं जन्मकोटिसमुद्भवम् ।।
तदनन्तर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करे और प्रवाह के निकट स्थित हो श्रीगंगोदक को भक्तिभाव से मस्तक पर धारण करे । स्नानपूर्व प्रवाह के निकट ही श्रद्धांजलिपुरस्सर प्रेमभाव से यह प्रार्थना करे –
गंगे देवि जगद्धात्रि पादाभ्यां सलिलं तव ।
स्पृशामीत्यपराधं मे प्रसन्ना क्षन्तुमर्हसि ।।
स्वर्गारोहणसोपानं त्वदीयमुदकं शुभे ।
अतः स्पृशामि पादाभ्यां गंगे देवि नमो नमः ।।
तब श्रीगंगे-श्रीगंगे नामामृत का उच्चारण करता हुआ, स्नानार्थ जल में प्रवेश कर श्रीगंगाकर्दम का यह वाक्य कहता हुआ शरीर पर लेपन करे –
त्वत्कर्दमैरतिस्निग्धैः सर्वपापप्रणाशनैः ।
मया संलिप्यते गात्रं मातर्मे हर पातकम् ।।
तब वक्ष्यमाण मन्त्र से गोता लगाकर स्नान करे –
विष्णुपादाब्जसम्भूते गंगे त्रिपथगामिनी ।
धर्मद्रवेति विख्याता पापं मे हर जाह्नवि ।।
विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुपूजिता ।
त्राहि मामेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ।।
श्रद्धया धर्मसम्पूर्णे श्रीमता रजसा च ते ।
अमृतेन महादेवि भागीरथि पुनीहि माम् ।।
त्रिभिः श्लोकवरैरेभिर्यैः स्नायाज्जाह्नवीजले ।
जन्मकोटिकृतात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।।
यथेष्ट स्नानकर बाहर निकलकर धौतवस्त्र इतनी दूर उतारे कि निचोड़ा हुआ जल स्रोत में न जाय, गंगा की मिट्टी से अंगों पर तिलक धारण करे, सन्ध्या-वंदन-गायत्रीजप कर शास्त्रोक्त विधि से तर्पण करे ।
गांगेयैरुदकैर्यस्तु कुरुते पितृतर्पणम् ।
पितरस्तस्य तृप्यन्ति वर्षकोटिशतावधि ।।
गंगायां कुरुते यस्तु पितृश्राद्धं द्विजोत्तम ।
पितरस्तस्य तिष्ठन्ति सन्तुष्टास्त्रिदशालयम् ।।
यथाशक्ति दान दे । निश्चिन्त मन से श्रीगंगाजी का पूजन करे । श्री सदाशिवोपदिष्ट श्रीगंगाजी का जप तथा षोडशोपचारविधि से पूजन के लिए यह मूल मंत्र है –
ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः ।
श्रीगंगाजी का प्रेमपूर्वक पूजन तथा मूलमंत्र जपकर दिव्यस्तोत्रद्वारा स्तुति करे । दिवस व्यतीत होने पर गंगातट से दूर स्थित होकर रात्रि में सहर्ष जागरण करे । यदि निराहार रहने की शक्ति न हो तो एक समय पयोव्रत, फलाहार-सेवन करे । अन्न का और द्विर्भोजन का परित्याग तो अवश्य ही करे ।
प्रातःकाल उसी प्रकार शौच, स्नान, सन्ध्या, तर्पण, पूजन से निवृत्त होकर तीर्थपुरोहित को भोजन तथा दक्षिणा से संतुष्ट करके आशीर्वाद ग्रहण करे । श्रीगंगाजी से बद्धांजलिपुरस्सर यह प्रार्थना करे –
अर्चनं जागरं चैव यत्कृतं पुरतस्तव ।
अच्छिद्रमस्तु तत्सर्वं त्वत्प्रसादात्सरिद्वरे ।।
इस प्रकार जो श्रद्धालु एक बार भी श्रीगंगाजी में स्नान करता है, वह श्रीविष्णुलोक में रहकर परम ज्ञान प्राप्तकर कैवल्यपद में प्रवेश करता है । Bhartiya Vrat-Tyohar ki Mahima स्पस्ट यहाँ दिखती है ।

व्रतपर्वोत्सव पर स्वामी विवेकानन्दजी के विचार

महर्षि कणाद के गुरुकुल में प्रश्नोत्तर चल रहे थे । उस समय जिज्ञासु उपगुप्त ने पूछा – देव ! भारतीय संस्कृति में व्रतों तथा जयन्तियों की भरमार है, इसका क्या कारण है ? महर्षि कणाद बोले – तात ! व्रत व्यक्तिगत जीवन को अधिक पवित्र बनाने के लिए हैं और जयन्तियाँ महामानवों से प्रेरणा ग्रहण करने के लिए हैं । उस दिन उपवास, ब्रह्मचर्य, एकान्तसेवन, मौन, आत्मनिरीक्षण आदि की विद्या सम्पन्न की जाती है । दुर्गुण छोड़ने और सद्गुण अपनाने के लिये देवपूजन करते समय संकल्प किये जाते हैं एवं संकल्प के आधार पर व्यक्तित्व ढाला जाता है ।

व्यक्ति को अध्यात्म का मर्म समझाने, गुण, कर्म और स्वभाव का विकास करने की शिक्षा देने, सन्मार्ग पर चलाने का ऋषिप्रणीत मार्ग है – धार्मिक कथाओं के कथन-श्रवण द्वारा सत्संग एवं पर्व विषयों पर सोद्देश्य मनोरंजन । त्योहार और व्रतोत्सव यही प्रयोजन पूरा करते हैं ।

स्वामी विवेकानन्दजी ने अपने उद्बोधन में एक बार भारतीय संस्कृति की पर्व-परम्परा की महत्ता बताते हुए कहा था – वर्ष में प्रायः चालीस पर्व पड़ते हैं, युगधर्म के अनुरूप इनमें से दस का भी निर्वाह बन पड़े तो उत्तम है । उन प्रमुख दस पर्वों के नाम और उद्देश्य इस प्रकार हैं –

1. दीपावली – लक्ष्मीजी के उपार्जन और उपयोग-मर्यादा का बोध । गोसंवर्धन के सामूहिक प्रयत्न से अँधेरी रात को जगमगाने का उदाहरण । वर्षा के उपरान्त समग्र सफाई ।
2. गीता जयन्ती – गीता के कर्मयोग का समारोहपूर्वक प्रचार-प्रसार ।
3. वसन्तपंचमी – सदैव उल्लसित, हलकी मनःस्थिति बनाये रखना तथा साहित्य, संगीत एवं कला को सही दिशाधारा देना ।
4. महाशिवरात्रि – शिव के प्रतीक जिन सत्प्रवृत्तियों की प्रेरणा का समावेश है, उनका रहस्य समझना-समझाना ।
5. होली – नवान्न का सामूहिक वार्षिक यज्ञ, प्रह्लाद-कथा का स्मरण । सत्प्रवृत्ति का संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति का उन्मूलन ।
6. गंगा दशहरा – भगीरथ के उच्च उद्देश्य एवं तप की सफलता से प्रेरणा । सद्बुद्धि हेतु दृढ़संकल्प और सत्प्रयास ।
7. व्यासपूर्णिमा (गुरुपूर्णिमा) – स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था । गुरुतत्त्व की महत्ता और गुरु के प्रति श्रद्धाभावना की अभिवृद्धि ।
8. रक्षाबन्धन (श्रावणी) – भाई की पवित्र दृष्टि-नारीरक्षा । पापों के प्रायश्चित्त हेतु हेमाद्रिसंकल्प । यज्ञोपवीतधारण । ऋषिकल्पपुरोहित से व्रतशीलता में बँधना ।
9. पितृविसर्जन – पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए श्राद्ध, तर्पण । अतीत महामानवों को श्रद्धांजलि-अर्पण ।
10. विजयादशमी – स्वास्थ्य, शस्त्र एवं शक्तिसंगठन की आवश्यकता का स्मरण । असुरता पर देवत्व की विजय । इनके अतिरिक्त रामनवमी, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, हनुमज्जयन्ती और गणेश चतुर्थी क्षेत्रीय पर्व हैं, जिनमें कई तरह की शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ सन्निहित हैं।

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