भारत में Prachin Rasayan Udyog प्राचीन रसायन उद्योग कब से चला आ रहा है तथा इसके विकाश का क्या असतर रहा है इसे यहाँ समझेगें ।
Prachin Rasayan Udyog | Ancient Chemical Industry
प्राचीन रासयनिक परम्परा-
रसायन (रस-अयन) का अर्थ है ‘रस की गति’ । प्राचीन काल से ही भारत में रसायन की उन्नत परम्परा रही है ।
रसार्णव, रसेन्द्रमंगल, रसरत्नाकर, रत्नघोष, रसह्यदय, रसरत्न समुच्चय आदि अनेक ग्रंथों में विभिन्न रासायनिक क्रियाओं, रसशालाओं के निर्माण, औषधि निर्माण तथा विभिन्न धातुओं के जारण, मारण, उत्थापन, मूछर्ना, रोधन, नियमन, स्वेदन आदि की जो विधियाँ दी गई हैं, वे आज भी अपनाई जा रही है ।
आठ महारस, विभिन्न प्रकार के अम्ल-क्षार, चाँदी-सोने आदि धातुओं को शुद्ध करना, मोति आदि रत्नों को गलाना, पारा जमाना, धातुओं को मारना, नकली सोना बनाना, धातुओं के विभिन्न प्रकार आदि की जानकारी के साथ ही इनके लिए आवश्यक यंत्रों जैसे- मूषायंत्र, पातनायंत्र, दोलायंत्र, दीपिकायंत्र, कच्छपयंत्र, स्वर्णजारणयंत्र, बीजद्रावणयंत्र, सारणयंत्र, हंसपाकयंत्र, कोष्ठिका, पोटलिका, बंकनाल, चक्रयंत्र, ढेकीयंत्र, स्वेदिनीयंत्र, धूपयंत्र, नलिकायंत्र, विद्याधरयंत्र, गर्भयंत्र आदि अनेक यंत्रों की जानकारी है ।
आज की प्रयोगशालाओं में रखे यंत्र मूलरूप से इन्हीं के विकसित रूप है ।
प्राचीन भारत की उन्नत रसायन परम्परा का विस्तृत विवरण आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय ने ‘हिन्दु केमेस्ट—ी’, डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने ‘वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा’ तथा गुलेरीजी ने ‘संस्कृत में विज्ञान’ में दिया है ।
रसायन उद्योग-
प्राचीन भारत रसायन के क्षेत्र में विभिन्न विधाओ का जानकार होने के साथ बड़ा उत्पादक तथा निर्यातक भी था ।
रसायन के विभिन्न अविष्कारों में विभिन्न प्रकार के रंग भी भारत की देन है । अलग-अलग प्रकार की वनस्पतियों से प्राप्त ये विभिन्न रंग कपड़ो को रंगने एंव चित्रांकन के काम में लाए जाते थे । खाने में प्रयोग किए जाने वाले आयुर्वेद प्राकृतिक रंग की परम्परा भी है ।
कृत्रिम स्वर्णरजत लेपः संस्कृतिरुच्यते ।
वक्षारमयौ धानों सुशुक्तजल सन्निधौं ।
आच्छादयति तत्तान्रं तत् शातकुंभम्-स्मृतम् ।।
सुपर्णलिष्तं तत्ताम्रं स्वर्णेन रजतेनवा ।
लिप्त स्वर्णपुटेन ताम्ररजतं तत् शातकुंभम्- स्मृतम् ।।
एक धातु पर दूसरे धातु का लेप चढाना ,
इस क्रिया के यूरोपियन भाषा में ‘इलेक्ट्रोप्लेटिंग ’कहते है ।
भारत में प्राचीन काल से यह विधी चली आ रही है ।
गंधसार, गंधयुक्त, बृहत्संहिता,मानसोला आदि अनेक गंथों में विभिन्न प्रकार के सुकुमार,महानारायण आदि सुगंधित तेल, अंगराग, इत्र, सुगंधित जल, अगरबत्ती, चूर्ण, लेप आदि के उत्पादन का उल्लेख हैं । विभिन्न प्रकार के फल-फल ,पत्तियों, केसर चन्दन आदि वृक्षों तथा जड़ो आदि से निर्मित ये सामग्रियाँ निर्यात भी की जाती थीं ।
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