प्राचीन काल में Bharat Ka Sanskritik Samrajya पूरे विश्व में फैला हुआ था । हमारे इतिहार व प्राप्त खुदाई के साक्ष्य इसके गवाहा हैं ।
Bharat Ka Sanskritik Samrajya । Cultural Empire Of India
प्राचीन समय में आर्य सभ्यता और संस्कृति का विस्तार किन-किन क्षेत्रों में हुआ था, इस रहस्य को विश्व के विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहास मनीषी, भिन्न-भिन्न स्थानों पर खुदाई में मिली सामग्री, ग्रंथों में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्य, क्षेत्रीय व स्थानीय जन-श्रुतियों का गहन अध्ययन कर नित नए आश्चर्यजनक तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
विश्व के विद्वानों द्वारा सतत् खोज और विचार-मंथन के पश्चात् अब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि भारत ही विश्व की समस्त सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की जन्मस्थली है। चाहे वह एशिया हो, यूरोप हो, अफ्रीका हो, अमेरिका हो, आस्ट्रेलिया हो या समुद्रों के बीच अवस्थित श्रीलंका, मॉरीशस, विश्व के विद्वानों द्वारा सतत् खोज और विचार-मंथन के पश्चात् अब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि भारत ही विश्व की समस्त सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की जन्मस्थली है। चाहे वह एशिया हो, यूरोप हो, अफ्रीका हो, अमेरिका हो, आस्ट्रेलिया हो या समुद्रों के बीच अवस्थित श्रीलंका, मॉरीशस,जावा, सुमात्रा, बाली, जापान, बोर्नियो, इण्डोनेशिया, इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड, जापान, फीजी आदि द्वीप हों, सभी में सभ्यता और संस्कृति के उदय में भारत की संस्कृति और सभ्यता का प्रमुख हाथ रहा है।
विश्व के देशों का अलग-अलग वर्णन करने से पूर्व विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों की इस सम्बन्ध में स्वीकृति का ज्ञान होना आवश्यक है। कुछ उदाहरण निम्नवत हैं :
(१) जर्मनी के प्रख्यात विद्वान तथा भारतीय संस्कृति के आराधक मैक्समूलर ने सन् १८५८ में एक परिचर्चा में महारानी विक्टोरिया से कहा था, “यदि मुझसे पूछा जाए कि किस देश में मानव मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है, जीवन के गूढ़तम प्रश्नों पर गहराई से विचार किया है और समाधान ढूँढ निकाले हैं, तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा, जिसकी ओर प्लेटो और काण्ट जैसे दार्शनिकों के दर्शन का अध्ययन करने वालों का ध्यान भी आकृष्ट होना चाहिए।“
(२) अपनी ज्ञान-पिपासा परितृप्त करने हेतु एक सदी पूर्व भारत आए प्रसिद्ध विद्वान लार्ड विलिंग्टन ने लिखा है, “समस्त भारतीय चाहे वह प्रासादों में रहने वाले राजकुमार हों या झोपड़ों में रहने वाले गरीब, संसार के वे सर्वोत्तम शीलसम्पन्न लोग हैं, मानों यह उनका नैसर्गिक धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्य दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को कभी वे नहीं भूलते।“
(३) “यदि विश्व में कोई ऐसा देश है, जहाँ कि विश्व की प्रथम सभ्यता पैदा हुई, जिसको कि हम मूल सभ्यता का नाम दे सकते हैं और जिसने विकसित होने के बाद प्राचीन विश्व के सभी भागों में अपना विस्तार किया तथा अपने ज्ञान के द्वारा विश्व के मनुष्यों को महान जीवन प्रदान किया, वह निःसन्देह भारत है।” (क्रूजर)
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जापान की सभ्यता और संस्कृति के उदय में भारत की संस्कृति योगदान | Bharat Ka Sanskritik Samrajya
इस प्रकार की आम धारणा है कि भारत का संबंध जापान से बौद्ध धर्म के माध्यम से आया। एक जापानी लेखक विद्वान ने एक बार कहा, “यदि मुझे जापानी संस्कृति का इतिहास लिखना पड़े तो मैं कहूँगा कि वह भारत की संस्कृति का इतिहास होगा। हमारे देवता और मन्दिर दोनों एक समान हैं।“हजारों साल पहले भारत के सांस्कृतिक विद्वान, प्राध्यापक, योगी और दार्शनिक, जो दक्षिणी-पूर्व एशिया में गए, वह जापान के कोने-कोने तक पहुँचे और उन्होंने वहाँ अपने शिक्षा केन्द्र खोले। जापान के जन-समाज में भारत के प्रति जितना ज्ञान, प्यार एवं श्रद्धा थी, वह विश्व के अन्य किसी देश में नहीं थी।
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जापान में भारतीय देवी – देवता | Bharat Ka Sanskritik Samrajya
भारत के योगी जो जापान में धर्म प्रचार के हेतु से गए थे वह अपने साथ भारत के अनेक देवी देवताओं की प्रतमाएं वहाँ ले गए थे। वर्तमान समय में भी वहाँ के लोग अत्यंत श्रद्धा – भक्ति पूर्वक उन देवी – देवताओं की पूजा आराधना किया करते हैं।
नवीं शताब्दी तक जापानी सिद्धि प्रदाता, विनायक गणेशजी से अपरिचित थे। बौद्ध संन्यासी “कोलसो देशी” द्वारा सर्वप्रथम विनायक की मूर्ति बुद्ध की मूर्ति के साथ मन्दिर में प्रस्थापित की गई। विनायक अल्पकाल में ही जापान में अत्यंत लोकप्रिय हो गये थे।“कांगी-तेन” नाम की गणेश जी की मूर्ति का पूजन एक संप्रदाय द्वारा किया जाता है।
विश्व के निर्माता ब्रह्माजी को जापान में “बोनटेनसामा” के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव के महाकाल रूप को यहाँ ‘दाईकोकूतेन’ के नाम से जाना जाता है। नर्क के राजा तथा धर्मराज यम भगवान को यहाँ ‘ एम्मा’ के नाम से जाना जाता है। देवी सरस्वती जापान में “बेतेनसाम” के नाम से बहुत प्रसिद्ध है और इनकी पूजा धन व सुंदरता के इच्छुक लोगों द्वारा की जाती है। इसी प्रकार से जापान के लोग अन्य भारतीय देवी देवताओं की भी बहुत श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पूजा आदि करते हैं।
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ज़ेन
समय में “ज़ेन” संप्रदाय अमेरिका व यूरोप के बुद्धिजीवियों का प्रिय धर्म बनता जा रहा है। बौद्ध धर्म के जिन महान विद्वानों को बाद में भारत ने जापान भेजा, उनमें बोधि धर्म, धर्मबोधि और बोधिसेन भारद्वाज अत्यंत प्रसिद्ध हैं। बोधि धर्म जो कि दरूम (धर्म) के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। यह दक्षिण भारत के राज्य में चीन के राजकुमार थे और कांचिपुरम् में इनकी शिक्षा हुई थी। गौतम बुद्ध के समान ही ये भी योगी बन गए थे। वे बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जापान गए। बौद्ध धर्म विद्यालय, जिसे कि जापान में “ज़ेन” कहते हैं, में उसके गुरु बौद्ध धर्म कैन्टन में ४७० ईसवीं में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक गुफा निर्विकल्प समाधि लगाकर वहाँ के लोगों को चमत्कृत किया और आज उनकी शिक्षाएँ समस्त जापान के घर-घर में, ज़ेन मन्दिरों तथा चीन में प्रचलित हैं। जगतगुरु शंकराचार्य के ८वीं शताब्दी में प्रस्थापित अद्वैतवाद के सिद्धांत जापान और कोरिया में “ज़ेन” संप्रदाय के अनुयायियों के प्रमुख ज्ञानसूत्र हो गए थे।
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मिस्र (इजिप्ट) की सभ्यता और संस्कृति के उदय में भारत की संस्कृति और सभ्यता का योगदान | Bharat Ka Sanskritik Samrajya
नील नदी के उत्तरी भाग में स्थित मिस्र या इजिप्ट राज्य को वैदिक था। साहित्य में “सवान” नाम दिया है। इसी को आजकल “असवान” कहते हैं। यहीं पर आजकल विश्व का सबसे बड़ा “असवान बाँध” स्थित है।
“चाक्षुष मन्वन्तर” में चाक्षुष मनु के पुत्र “उर” ने इस क्षेत्र को जीतकर यहाँ पर प्रथम वैदिक राज्य की स्थापना की थी। उनके राज्य के अंतर्गत अरब का प्रदेश भी था।
बाद के वैदिक साहित्य के अनुसार इस क्षेत्र को भगवान राम के पुत्र “कुश” ने विजित किया और यहाँ अपने साम्राज्य की स्थापना की। इनके राज्य में अरब और यूनान के भी क्षेत्र थे। बाद में इन्होंने अपने साम्राज्य का अफ्रीका के दक्षिण भाग में भी विस्तार किया।
‘वैदिक ऋग्वेद’ के प्रथम मण्डल के १२६वें सूत्र में सवान के राजा “तूर्त” का उल्लेख है, जिसने एक महायज्ञ का अनुष्ठान किया था और पुरोहितों को बहुत बड़ी संख्या में धन, अश्व, अन्न आदि दक्षिणा के रूप में प्रदान किए थे। “अथर्ववेद” क “उन्ताप सूत्र” में “कर्करी” शब्द का उल्लेख आया है। मिस्र में गणेश जी को “कर्करी” के नाम से पुकारते थे।
पुराणों में नील नदी के उद्गम के क्षेत्र को, जिसको कि इस समय “अबीसीनिया” (इथिओपिया) कहते हैं तथा नील नदी की घाटी को “कुश” क्षेत्र करके उल्लेख किया है।
अफ्रीका में मिस्र में जो पिरामिड मिले हैं, वे मध्य अमेरिका में पाए जाने वाले प्राचीन आर्य सभ्यता के पिरामिडों से साम्य रखते हैं। यहाँ के देवीदेवताओं के नाम यद्यपि यहाँ की भाषा के कारण भिन्न हो गये, परन्तु जिनजिन शक्तियों की पूजा भारतीय आर्य करते थे, उन्हीं उन्हीं शक्तियों के देवता
भी यहाँ के मन्दिरों में पूजे जाते थे। यहाँ के मन्दिरों की पूजा-पाठ, कर्म-काण्ड तथा पुजारियों का पवित्र त्यागमय जीवन उसी प्रकार का था, जिस प्रकार भारत का था। यहाँ के निवासियों के रीति-रिवाज और पहनावा भी आर्य जातियों से मेल खाते हैं।
जितने भी प्रमाण या तथ्य यहाँ की प्राचीन सभ्यता के बारे में उपलब्ध 1530 हुए हैं, उनसे तो स्पष्ट रूप से यह सिद्ध होता है कि मिस्र वैदिक काल में भारतीय संस्कृति का ही एक अत्यन्त उन्नत, सम्पन्न तथा शक्तिशाली उपनिवेश था ।
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अमेरिका में भारतीय सभ्यता
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मय सभ्यता
मय सभ्यता का विस्तार सबसे अधिक जिन स्थानों पर था, उसमें कियापास ग्वाटेमाला की दक्षिणी उच्च भूमि, युकातन की निचली भूमि और मैक्सिको खाड़ी के वेलाइज़ से हाण्डुरस तक इसका क्षेत्र था। आज तक हुई नवीन खोजों के अनुसार इन सभ्यताओं के निर्माता दक्षिण पूर्व एशिया और चीन से प्रशांत महासागर को पार कर वहाँ पहुँचने वाले भारतीय ही थे। इन सभ्यताओं का सारा प्रारूप तथा इनके बारे में प्राप्त हुई जानकारी यह जोरशोर से उद्घाटित कर रही है कि इनके संस्थापक केवल भारतीय ही थे। चीनी, ग्रंथों के अनुसार एक भारतीय संन्यासी “हरिश्चन्द्र”, जिसे चीनी भाषा में “हाईसान” नाम से जाना जाता है, पाँचवीं शताब्दी में काबुल से चीन पहुँचा था। काबुल उस समय भारत का ही एक भाग था। जाँक 15ल
कि मय जाति के लोग बहुत कुशल वास्तुकार थे। इसका प्रमाण वहाँ पाए गए अत्यन्त सम्पन्न नगरों, मन्दिरों, मकानों, पिरामिड़ों, बाजारों, नाट्यग्रहों, अट्टालिकाओं और हजारों खम्भों के बृहदाकार मन्दिरों से प्राप्त होता है। भारतीय कल्पना के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी इसी मय जाति की थी और रावण वहाँ दिग्विजय प्राप्त करने गया था। यह जाति “दनु” के पुत्रों “दानवों” द्वारा ही बसाया गया था। इनके पिता मरीय पुत्र “ऋषि कश्यप” थे। महाभारत में युधिष्ठिर का महल तथा लंका में कुबेर के महल के निर्माता भी “मय दानव” ही बताए जाते हैं। ‘शून्य’ तथा ‘नौ’ अंकों का जनक भारत था। यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है और मय उनका प्रयोग करते थे। इनका अपना एक कालगणना चक्र (कैलेण्डर) भी था। जिसमें १८ माह और प्रत्येक माह में २० दिन थे। बाद में उसमें पाँच दिन और जोड़ दिए जाते थे। मय दानवों को ज्यामिती, भौतिकी, ज्योतिषी तथा खगोलशास्त्र का अच्छा ज्ञान था। ये लोग अच्छे मानचित्रक तथा अभियंता थे। इनकी लिपि, चित्र-शैली थी और यह अच्छे चित्रकार भी थे। हिन्दू धर्म की लगभग सभी मान्यताएँ, जो अन्त में दी गयी हैं, इनमें प्रचलित हैं।
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